सल्तनतकालीन शासन व्यवस्था Administration Of Delhi Sultanate in hindi : अब तक हमने दिल्ली सल्तनत का इतिहास प्रमुख मुख्य वंशों उनके संस्थापकों कार्य आदि के बारे में विस्तार से पढ़ा है.
अब हम दिल्ली सल्तनत काल के मुख्य अधिकारियों, कर प्रणाली, भूमि के प्रकार इक्ता प्रणाली और सल्तनत कालीन साहित्य के बारे में जानकारी हम इस लेख में प्राप्त करने वाले हैं.
सल्तनतकालीन शासन व्यवस्था Delhi Sultanate in hindi

सल्तनत-ए-देहली अथवा दिल्ली सल्तनत मूल रूप से तुर्क-अफ़्ग़ान आक्रमणकारियों द्वारा शासित कालखंड कहलाता हैं. 1206 से 1526 की अवधि में लगभग 320 वर्षों के दौरान के शासनकाल को सलतनत काल कहा जाता हैं.
दिल्ली इसकी राजधानी थी. मुगलों के आगमन पर इस काल का अंत हुआ और मुगल एरा की शुरुआत हुई. इन 320 वर्षों में किन किन तुर्क अफगान वंशों ने दिल्ली सल्तनत की सत्ता पर अधिकार जमाया उनका विवरण इस प्रकार हैं.
वंश / कबीला | शासन अवधि |
ग़ुलाम वंश | 1206 -1290 |
ख़िलजी क़बीला | 1290-1320 |
तुग़लक़ क़बीला | 1320-1414 |
सय्यद वंश | 1414-1451 |
लोदी क़बीला | 1451 – 1526 |
शासन का प्रधान सुल्तान होता था उत्तराधिकारी का कोई निश्चित नियम नही था.
सल्तनत कालीन अधिकारी और उनके कार्य
- वजीर- साम्राज्य की आय और व्यय का लेखा जोखा रखने वाला
- आरिज ए मुमालिक- दीवान ए आरिज का प्रधान, सैन्य विभाग का सर्वोच्च अधिकारी
- रसालात ए मुमालिक– विदेश विभाग का प्रधान
- इंशा ए मुमालिक– पत्राचार विभाग का प्रधान
- वकील ए दर- शाही महल एवं सुल्तान की व्यक्तिगत सेनाओं का तथा सुल्तान की गृहस्थी का अधिकारी
- अमीर ए हाजिब– शाही दरबार का शिष्टाचार एवं वैभव बनाए रखने वाला इसे बारबक भी कहते थे. इसकी अनुमति के बिना ना तो कोई सुल्तान तक पहुच सकता था और ना ही प्रार्थना पत्र प्रस्तुत कर सकता था.
- अमीर ए बहर– जलमार्गों की देखभाल एवं उनके नियंत्रण की व्यवस्था
- अमीर ए शिकार– शाही शिकार का प्रबंध
- दीवान ए रियासत- बाजार पर नियंत्रण रखना
- बरबक– दरबार की कार्यवाही सम्पन्न, संचालित करना
- शाहना ए पील- हस्तिशाला का प्रधान
- अमीर ए आखुर- अश्वशाला का अध्यक्ष
- अमीर ए दाद- बड़े नगरों का मजिस्ट्रेट
- सद्र उस सुदूर– धर्म सम्बन्धी कार्यों का प्रमुख
- कोतवाल- शहर की शान्ति व्यवस्था का सर्वोच्च अधिकारी
- मुनिसफ़ ए मुमलिक- शाही उत्सवों का प्रबंधकर्ता
- सर ए जांदार– सुल्तान के अंगरक्षकों का प्रधान
- मुफ्ती-इस्लाम धर्म का व्याख्याता
- बरीद ए मुमलिक- गुप्तचर विभाग का प्रधान
- काजी उल कजात– न्याय विभाग का प्रमुख
प्रमुख विभाग व सल्तनत कालीन शासन व्यवस्था
- दीवान ए विजारत– वजीर का विभाग
- दीवान ए आरिज– सैन्य विभाग
- दीवान ए रसातल- विदेश विभाग
- दीवान ए इंशा– पत्राचार विभाग
- दीवान ए बरीद– गुप्तचर विभाग
- दीवान ए कोही– कृषि विभाग
- दीवान ए मुस्तखराज– राजस्व विभाग
- दीवान ए खैरात- दान विभाग
- दीवान ए इस्तिहाक– पेंशन विभाग
- दीवान ए बंदगान– दास विभाग
सल्तनत कालीन शासन व प्रांतीय प्रशासन
प्रान्तों को इक्ता के नाम से पुकारा जाता था. इक्ताओं को शिकों में विभाजित किया गया, जिसका एक प्रमुख सैन्य अधिकारी शिकदार होता था. शिकों को परगना में विभाजित किया गया था. जिसका मुख्य अधिकारी आमिल होता था.
शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव थी, जहाँ पर खुत और मुकद्दम मुख्य अधिकारी थे. प्रांतीय या सूबे के स्तर के अधिकारियों को वली, मुक्त, अमीर या मलिक पुकारा जाता था.
अलाउद्दीन खिलजी के समय दीवान ए विजारत ने इक्ताओं की आय पर अपना नियंत्रण रखा और अन्तः इक्ता प्रथा को समाप्त किया. फिरोज तुगलक ने इक्ता प्रथा की दुबारा शुरुआत की थी.
सेना की दशमलव प्रणाली
- सरखेल- 10 घुड़सवारों का प्रधान
- सिपहसालार- 10 सरखेलो का प्रधान
- अमीर- 10 सिपहसालारों का प्रधान
- मलिक- 10 अमीरों का प्रधान
- खान- 10 मलिकों का प्रधान
- सुल्तान- सभी खानों का प्रधान
भूमि के प्रकार
सल्तनत काल में भूमि को चार प्रकारों में वर्गीकृत किया गया था.
- खालसा भूमि
- इक्ता भूमि
- अनुदान भूमि
- हिन्दू सामंतों के भूमि क्षेत्र
खालसा भूमि
खालसा भूमि वह भूमि होती थी जिसकी आय सुल्तान के लिए सुरक्षित रखी जाती थी. यह भूमि सीधे सुल्तान के नियंत्रण में थी. खालसा भूमि से भू राजस्व वसूल के लिए पृथक आमिल नियुक्त किये जाते थे. जो केन्द्रीय प्रशासन के संरक्षण एवं निर्देशन में कार्य करते थे.
खालसा भूमि का सर्वाधिक विस्तार अलाउद्दीन खिलजी के समय में हुआ. उसने मिल्क, इनाम व वक्फ भूमि को खालसा भूमि में सम्मिलित कर दिया.
इक्ता भूमि
वेतन के रूप में अधिकारियों को प्रदान की जाने वाली भूमि इक्ता भूमि कहलाती हैं. इस भूमि के प्राप्तकर्ता इक्तदार कहलाता था. इस क्षेत्र से प्राप्त लगान की राशि से इक्तदार अपना वेतन व अपनी सेना का खर्च निकाल कर शेष राशि केन्द्रीय कोष में जमा कर देता था. इस शेष राशि को फ्वाजिल कहा जाता था.
लोदियों के काल में इक्ता शब्द का प्रचलन कम हो गया. उसके स्थान पर सरकार शब्द का प्रयोग होने लगा.
अनुदान भूमि
राज्य द्वारा अधिकारियों को पुरस्कार के रूप में अथवा संतों व धर्माचार्यो को दान के रूप में दी गई भूमि अनुदान भूमि कहलाती थी. इसके अंतर्गत मिल्क, वक्फ तथा इनाम या मदद ए माश सम्मिलित थी.
सामान्यतः इस प्रकार के अनुदान समय बीतने पर वंशानुगत रूप से धारण कर लेते थे. परन्तु सुल्तान का इस पर सदैव अधिकार माना जाता था. वह कभी भी इसे वापिस ले सकता था. जैसे अलाउद्दीन खिलजी ने सभी अनुदान भूमि को जब्त कर खालसा भूमि में तब्दील कर दिया था.
हिन्दू सामंतों के भूमि क्षेत्र
इस श्रेणी के अंतर्गत वह क्षेत्र आते थे जो स्वायत शासकों अथवा रायों की सत्ता के अधिन थे. यह सुल्तान की सत्ता स्वीकार करते थे और उसे भेट या नजराना प्रस्तुत करते थे. सुलतान की अधीनता मानने वाले हिन्दू सामंत अपने राज्य में पूर्ण स्वायत होते थे. वे मात्र सुल्तान को निर्धारित कर चुकाते थे.
आर्थिक एवं तकनीकी परिपेक्ष्य
तुर्क तथा अन्य मुस्लिम साम्राज्यों में नगरों का काफी महत्व था. एवं उन्हें गाँवों के मुकाबले अधिक वरीयता दी जाती थी. नवीन तकनीकों के आने से आर्थिक प्रक्रिया को बल मिला.
तुर्क अपने साथ चरखा लेकर आए. चरखा संभवतः १२ वीं सदी में ईरान में विकसित हुआ. भारत में इसका प्रथम उल्लेख १४ वीं सदी में मिलता है. इसकी वजह से पारम्परिक तकली के मुकाबले कताई क्षमता ६ गुना बढ़ गई थी.
नददाफ धुनिया का गज भी इसी काल का आविष्कार था, जिससे रुई से बीज जल्दी अलग होने लगा. इन तकनीकों से वस्त्र उद्योग को बढ़ावा मिला, भारत का सबसे महत्वपूर्ण निर्यात वस्त्र ही था.
तुर्क मेहराब, गुम्बद आदि भवन निर्माण की नई तकनीक लाए. कागज का प्रचलन इसी काल में हुआ. भारत में कागज की प्राचीनतम पांडुलिपि १२२३-२४ ई की हैं जो गुजरात से मिली हैं. दिल्ली सल्तनत में ही भारत में रेशम के कीड़े पालने की प्रथा शुरू हुई.
सल्तनत कालीन साहित्य का इतिहास (History of Sultanate Literature)
तुर्क जब भारत आए तो वे अपने साथ एक नई भाषा फ़ारसी लेकर आए. यही भाषा तुर्क सल्तनत की प्रशासनिक भाषा बनी और फ़ारसी भाषा में विपुल साहित्य की रचना हुई. इस प्रकार भारत में एक नई भाषा का पुनर्स्थापन और विकास हुआ.
भारत में अरबी भाषा मुख्यतः इस्लामी विद्वानों और धार्मिक दार्शनिकों के एक छोटे से समूह तक सिमित रही. फ़ारसी का प्रथम केंद्र लाहौर बना. इस काल में फ़ारसी का स्थानीय भाषाओं से सम्पर्क हुआ.
तुर्की भाषा फारसी, अरबी भाषाओं के मुख्यतः खड़ी बोली, हरियाणवी, ब्रजभाषा तथा अन्य भारतीय भाषाओँ के साथ मिश्रण के परिणामस्वरूप एक नई भाषा यानि उर्दू का जन्म हुआ.
उर्दू का उद्भव ११ वीं शताब्दी से माना जाता है. तथापि इसकी वास्तविक उत्पत्ति इल्तुतमिश काल में हुई. इसकी लिपि फ़ारसी में हैं. इसका प्रारम्भिक विकास दक्कन में हुआ.
विशेषकर बीजापुर एवं गोलकुंडा के मोहम्मद गेसूदराज को उर्दू गद्य का जन्मदाता माना जाता हैं. इन्होने फ़ारसी लिपि में उर्दू ग्रन्थ मिरान उल आशिकिन की रचना की.